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मधुबनी चित्रकला: एक अद्भुत लोक कला

मधुबनी चित्रकला, जिसे मिथिला चित्रकला के नाम से भी जाना जाता है, भारत की सबसे प्रसिद्ध लोक कलाओं में से एक है। बिहार के मिथिला क्षेत्र से उत्पन्न यह कला अपनी जीवंत रंगों, जटिल पैटर्न और सांस्कृतिक व आध्यात्मिक प्रतीकवाद के लिए जानी जाती है। अपनी विशिष्ट शैली और सांस्कृतिक समृद्धि के कारण इसने वैश्विक पहचान प्राप्त की है।


1. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

प्रत्येक क्षेत्र की कलाओं की एक विशिष्ट शैली होती है जिनमें अपने क्षेत्रीय भाषाओं, परंपराओं, रीतियों, कहानियों, श्रुतियों, इत्यादि की झलक होती है। क्षेत्रीय कलाएं अपने क्षेत्र विशेष के इतिहास, भूगोल व अर्थशास्त्र को भी दर्शाती हैं और लोगों को अपने समुदाय की पृष्ठभूमि, रीति-रिवाजों व परंपराओं से जोड़ती है। बिहार में लोक कला की समृद्ध परंपरा रही है। मधुबनी चित्रकला का इतिहास प्राचीन काल से जुड़ा है। मान्यता है कि इसकी शुरुआत रामायण काल में हुई, जब राजा जनक ने अपनी बेटी सीता के विवाह के अवसर पर चित्रकारों को उनके महल की दीवारों पर पेंटिंग बनाने का आदेश दिया था। मिथिला चित्रकला की प्रसिद्धि आज पूरे विश्व में है।

लोक चित्रकला: चित्रकला मनुष्य के भावनाओं को अभिव्यक्त करने का प्रभावी माध्यम है। लिपि का प्रथम रूप हमें चित्रकला से ही प्राप्त हुआ। बिहार में चित्रकला की जड़ें काफी गहरी हैं। यह कला मधुबनी, दरभंगा, सहरसा और पूर्णिया जिले की प्रमुख लोक कला है। यह कला परंपरागत रूप से ग्रामीण महिलाओं द्वारा घरों की दीवारों और फर्शों पर धार्मिक त्योहारों, विवाह और अन्य महत्वपूर्ण अवसरों पर बनाई जाती थी। पीढ़ी दर पीढ़ी, यह परंपरा एक विशिष्ट कला शैली में विकसित हुई।


2. मुख्य विशेषताएँ

मधुबनी चित्रकला अपनी अनूठी शैली, विषयों और तकनीकों के लिए जानी जाती है।

  • विषय:
    इन चित्रों में हिंदू देवताओं जैसे कृष्ण, राम, शिव, दुर्गा और सरस्वती का चित्रण होता है। प्रकृति के तत्व जैसे मछली, मोर, पेड़ और कमल, जो समृद्धि और सद्भाव का प्रतीक हैं, भी प्रमुख हैं। इसके अलावा, पौराणिक कहानियाँ और सामाजिक घटनाएँ भी विषयों का हिस्सा होती हैं।
  • डिजाइन तत्व:
    ज्यामितीय पैटर्न, पुष्प आकृतियाँ और सममितीय डिज़ाइन मधुबनी चित्रकला के अभिन्न अंग हैं। काले और लाल रंग से स्पष्ट रेखाएं खींची जाती है तथा आड़ी-तिरछी रेखाओं द्वारा उसे भरा जाता है। इन डिज़ाइनों से चित्र भरे जाते हैं, जिससे कोई खाली स्थान नहीं रहता।  जिसे कचनी और भरनी कहा जाता है। इसमें गहरे और चटकीले रंगों का प्रयोग किया जाता है।  
  • रंग:
    इसमें गहरे और चटकीले रंगों का प्रयोग किया जाता है। परंपरागत रूप से, प्राकृतिक रंगों का उपयोग किया जाता था। हल्दी से पीला, इंडिगो से नीला, पत्तियों से हरा, जले हुए चावल के भूसे से काला और सिंदूर से लाल रंग बनाया जाता था। चित्रों में चमकीले और जीवंत रंगों का प्रयोग किया जाता है।
  • माध्यम:
    पहले यह कला दीवारों और फर्श पर की जाती थी, लेकिन अब इसे कागज, कपड़े और कैनवास पर भी बनाया जाता है। इस बदलाव ने इसे वैश्विक स्तर पर पहुँचने में मदद की।

3. मधुबनी चित्रकला की शैलियाँ

मधुबनी चित्रकला की पाँच मुख्य शैलियाँ हैं, जिनमें से हर एक की अपनी विशेषताएँ हैं:

  1. भरनी शैली: जीवंत रंगों और धार्मिक विषयों पर आधारित।
  2. कछनी शैली: बारीक रेखाओं और न्यूनतम रंगों का उपयोग।
  3. तांत्रिक शैली: तांत्रिक प्रतीकों और रहस्यमय चित्रण पर केंद्रित।
  4. गोदना शैली: पारंपरिक टैटू और आदिवासी आकृतियों से प्रेरित।
  5. कोहबर शैली: विवाह के दौरान बनाई जाने वाली, जो प्रेम, उर्वरता और समृद्धि के प्रतीक चिह्नों से भरी होती है।

4. पुनरुद्धार और आधुनिक महत्त्व

1960 के दशक में बिहार में पड़े भीषण सूखे के दौरान, ऑल इंडिया हैंडीक्राफ्ट्स बोर्ड ने स्थानीय महिलाओं को उनकी दीवारों की कला को कागज पर उतारने के लिए प्रोत्साहित किया। इस पहल ने न केवल इस कला को पुनर्जीवित किया बल्कि इसे आजीविका का साधन भी बनाया।

  • सम्मान और पुरस्कार:
    सीता देवी, महासुंदरी देवी और गंगा देवी जैसे प्रसिद्ध कलाकारों को उनके योगदान के लिए राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है।
  • सीता देवी : जितवारपुर गांव की मधुबनी पेंटिंग को अधिकारिक पहचान तब मिली जब 1969 में सीता देवी को बिहार सरकार ने मधुबनी पेंटिंग के लिए सम्मानित किया। इन्हें 1984 में मधुबनी पेंटिंग के लिए पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया। वर्ष 2006 में इन्हें बिहार और शिल्प गुरु सम्मान से भी सम्मानित किया गया।
  • महासुंदरी देवी : मिथिला कला के चित्रकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। मुश्किल से साक्षर महासुंदरी देवी ने अपनी चाची से मधुबनी कला को चित्रित करना शुरू किया। 1961 में उन्होंने उस समय की प्रचलित घूँघट प्रथा को छोड़ दिया और कलाकार के रूप में अपनी पहचान बनाई।
  • मिथिला हस्तशिल्प कलाकार औद्यौगिकी सहयोग समिति नामकएक सहकारी समिति की स्थापना की जिसने हस्तशिल्प और कलाकारों के विकास का समर्थन किया। इनके द्वारा चित्रित पेंटिंग कला की किंवदंती मानी जाती है। मिथिला पेंटिंग के अलावा महासुंदरी देवी मिट्टी, पेपर मेसी, सुजनी और सिक्की कला में अपनी विशेषज्ञता के लिए जानी जाती है।
  • वर्ष 1982 में इन्हें राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी सेराष्ट्रीय पुरस्कार मिला। वर्ष 1995 में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा तुलसी सम्मान तथा वर्ष 2011 में इन्हें भारत सरकार से पद्मश्री पुरस्कार मिला।
  • गंगा देवी : गंगा देवी का जन्म वर्ष 1928में हुआI ये मधुबनी चित्रकला के प्रमुख कलाकारों में से एक थी। भारत के बाहर मधुबनी चित्रकला को लोकप्रिय बनाने में उनका महत्वपूर्ण योगदान है।
  • मिथिला के पारंपरिक पेंटिंग शिल्प से इतर कच्छनी (रेखा चित्र) शैली का निर्माण किया। अमेरिका के मास्को होटल में अमेरिकी लोक-जीवन के उत्सव और राइड इन रोलर कोस्टर आदि कई उत्सव में इनके चित्र प्रदर्शित की गई।
  • इन्हें वर्ष 1984 में भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्मश्री से सम्मानित किया गया।
  • वैश्विक पहचान:
    मधुबनी कला को अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनियों में प्रदर्शित किया गया है और यह आधुनिक घरों और संस्थानों में सजावटी रूप में लोकप्रिय है।
  • भौगोलिक संकेत (GI) टैग:
    इसे जीआई टैग प्रदान किया गया है, जो इसकी सांस्कृतिक और भौगोलिक विशिष्टता को दर्शाता है।

5. चुनौतियाँ और संरक्षण

हालाँकि मधुबनी चित्रकला को ख्याति मिली है, लेकिन इसे व्यवसायीकरण, पारंपरिक तरीकों की क्षति और कलाकारों की घटती संख्या जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।

इस कला को संरक्षित करने के लिए किए गए प्रयासों में शामिल हैं:

  • सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों द्वारा कलाकारों को समर्थन।
  • स्कूलों में मधुबनी कला को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना।
  • मेलों, प्रदर्शनियों और ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म के माध्यम से इसे बढ़ावा देना।

निष्कर्ष

मधुबनी चित्रकला केवल एक कला रूप नहीं है; यह मिथिला क्षेत्र की सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है। ग्रामीण दीवारों से लेकर वैश्विक दीर्घाओं तक इसकी यात्रा इस बात का प्रमाण है कि यह कला कितनी कालजयी और प्रासंगिक है। आधुनिक समय में भी, मधुबनी कला भारत की सांस्कृतिक और कलात्मक पहचान का एक अभिन्न हिस्सा बनी हुई है।

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